कौन थे असली 'ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान' जिनसे अंग्रेज़ भी डरते थे..
ठग शब्द सुनते ही लोगों के दिमाग़ में एक चालाक और मक्कार आदमी की तस्वीर उभरती है जो झांसा देकर कुछ कीमती सामान ठग लेता है लेकिन भारत में 19वीं सदी में जिन ठगों से अंग्रेज़ों का पाला पड़ा था, वे इतने मामूली लोग नहीं थे.
ठगों के बारे में सबसे दिलचस्प और पुख़्ता जानकारी 1839 में छपी किताब 'कनफ़ेशंस ऑफ़ ए ठग' से मिलती है. किताब के लेखक पुलिस सुपरिटेंडेंट फ़िलिप मीडो टेलर थे लेकिन किताब की भूमिका में उन्होंने बताया है कि उन्होंने 'इसे सिर्फ़ कलमबंद किया है.'
दरअसल, साढ़े पांच सौ पन्नों की किताब ठगों के एक सरदार आमिर अली खां का 'कनफ़ेशन' यानी इक़बालिया बयान है. फ़िलिप मीडो टेलर ने आमिर अली से जेल में कई दिनों तक बात की और सब कुछ लिखते गए. टेलर के मुताबिक, "ठगों के सरदार ने जो कुछ बताया, उसे मैं तकरीबन शब्दश: लिखता गया, यहां तक कि उसे टोकने या पूछने की ज़रूरत भी कम ही पड़ती थी."
आमिर अली का बयान इतना ब्यौरेवार और दिलचस्प है कि वह एक उपन्यास बन गया और छपते ही उसने धूम मचा दी. रूडयार्ड किपलिंग के मशहूर उपन्यास 'किम' (1901) से क़रीब 60 साल पहले छपी इस किताब एक और ख़ासियत थी कि यह किसी अंग्रेज़ का नज़रिया नहीं बल्कि एक हिंदुस्तानी ठग का 'फ़र्स्ट पर्सन अकाउंट' है.
टेलर का कहना है कि आमिर अली जैसे सैकड़ों सरगना थे जिनकी देखरेख में ठगी का धंधा चल रहा था. आमिर अली से जब टेलर ने पूछा कि तुमने कितने लोगों को मारा तो उसने मुस्कुराते हुए कहा, "अरे साहब, वो तो मैं पकड़ा गया, नहीं तो हज़ार पार कर लेता. आप लोगों ने 719 पर ही रोक दिया."
ठगी का आलम ये था कि अंग्रेज़ों को इनसे निबटने के लिए एक अलग डिपार्टमेंट बनाना पड़ा था, वही विभाग आगे चलकर इंटेलिजेंस ब्यूरो या आईबी के नाम से जाना गया.
टेलर ने लिखा है, "अवध से लेकर दक्कन तक ठगों का जाल फैला था, उन्हें पकड़ना इसलिए बहुत मुश्किल था क्योंकि वे बहुत ख़ुफ़िया तरीके से काम करते थे. उन्हें आम लोगों से अलग करने का कोई तरीका ही समझ नहीं आता था. वे अपना काम योजना बनाकर और बेहद चालाकी से करते थे ताकि किसी को शक न हो."
ठगों से निबटने के लिए बने डिपार्टमेंट के सुपरिटेंडेंट कैप्टन रेनॉल्ड्स ने 1831 से 1837 के बीच ठगों पर हुई कार्रवाइयों का 1838 में ब्योरा दिया था. इस ब्योरे के मुताबिक, पकड़े गए जिन 1059 लोगों का दोष पूरी तरह साबित नहीं हो सका उन्हें दूर मलेशिया के पास पेनांग टापू पर ले जाकर छोड़ दिया गया ताकि वे दोबारा वारदात न कर सकें. इसके अलावा, 412 को फांसी दी गई और 87 को आजीवन कारावास की सज़ा हुई.
ठगों की ख़ुफ़िया रहस्यमय ज़िंदगी
ठगों के लिए अंग्रेज़ों ने 'सीक्रेटिव कल्ट', 'हाइवे रॉबर्स' और 'मास मर्डरर' जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया है. 'कल्ट' कहे जाने की वजह ये है कि उनके अपने रीति-रिवाज़, विश्वास, मान्यताएं, परंपराएं, उसूल और तौर-तरीक़े थे जिनका वे बहुत पाबंदी से धर्म की तरह पालन करते थे. उनकी अपनी एक अलग ख़ुफ़िया भाषा थी जिसमें वे आपस में बात करते थे. इस भाषा को रमासी कहा जाता था.
भारत में ठगों की कमर तोड़ने का श्रेय मेजर जनरल विलियम हेनरी स्लीमन को दिया जाता है जिन्हें अंग्रेज़ी हुकूमत ने 'सर' के खिताब से नवाज़ा था.
स्लीमन ने लिखा है, "ठगों के गिरोह में हिंदू और मुसलमान दोनों हैं. ठगी की शुरुआत कैसे हुई यह बता पाना नामुमकिन है, लेकिन ऊंचे रुतबे वाले शेख़ से लेकर ख़ानाबदोश मुसलमान और हर जाति के हिंदू इसमें शामिल थे."
मुहूर्त से होता था हर काम
चाहे हिंदू हों या मुसलमान, ठग शुभ मूहूर्त देखकर, विधि-विधान से पूजा-पाठ करके अपने काम पर निकलते थे, जिसे 'जिताई पर जाना' कहा जाता था. ठगी का मौसम आम तौर पर दुर्गापूजा से लेकर होली के बीच होता था. तेज़ गर्मी और बारिश में रास्तों पर मुसाफ़िर भी कम मिलते थे और काम करना मुश्किल होता था. अलग-अलग गिरोह अपनी आस्था के हिसाब से मंदिरों में दर्शन करने जाते थे.
ज़्यादातर ठग गिरोह मां काली की पूजा करते थे. इसके अलावा वे हर अगले क़दम से पहले शकुन और अपशकुन का विचार करते थे. उल्लू के बोलने, कौव्वे के उड़ने, मोर के चिल्लाने, लोमड़ी के दिखने जैसी हर चीज़ का वे अपने हिसाब से मतलब निकालते थे.
जिताई पर जाने से सात दिन पहले से 'साता' शुरू जाता था. इस दौरान ठग और उनके परिवार के सदस्य खाने-पीने, सोने-उठने और नहाने-हज़ामत बनाने वगैरह के मामले में कड़े नियमों का पालन करते थे.
साता के दौरान बाहर के लोगों से मेल-जोल, किसी और को बुलाना या उसके घर जाना नहीं होता था. इस दौरान कोई दान नहीं दिया जाता था, यहां तक कि कुत्ते-बिल्ली जैसे जानवरों को भी खाना नहीं दिया जाता था. जिताई से सफल होकर लौटने के बाद पूजा-पाठ और दान-पुण्य जैसे काम होते थे.
इसी तरह 'इटब' के नियमों का पालन होता था. ठगों का मानना था कि काम पर निकलने से पहले पूर्ण रूप से पवित्र होना बहुत ज़रूरी होता था. गिरोह के किसी ठग के घर में कोई जन्म या मृत्यु होने पर दस दिनों के लिए, पालतू जानवरों की मौत होने पर तीन दिन के लिए, और इसी तरह जन्म होने पर सात दिन के लिए या तो पूरा गिरोह रुक जाता था या वह ठग काम पर नहीं जाता था, जिसके परिवार जन्म या मृत्यु हुई हो.
'कस्सी' का महत्व
मारे जाने वाले लोगों की कब्र जिस कुदाल से खोदी जाती थी, उसे 'कस्सी' कहा जाता था. कस्सी सबसे ज़्यादा आदर की चीज़ थी.
गहरे रिसर्च के बाद उर्दू और हिंदी में लिखे बहुचर्चित उपन्यास 'कई चांद थे सरे आसमां' में शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने कस्सी की पूजा का वर्णन कुछ इस तरह किया है.
"एक साफ़ सुथरी जगह पर थाली में पानी से कुदाली को धो दिया जाता है. फिर पूजा की विधि जानने वाला ठग बीच में बैठता है, बाकी ठग नहा-धोकर उसके चारों तरफ़ बैठते हैं, कुदाली को पहले गुड़ के शर्बत, फिर दही के शर्बत और अंत में शराब से नहलाया जाता है. फिर तिल, जौ, रोली, पान और फूल से उसकी पूजा की जाती है. कुदाली की नोक पर सिंदूर से सात टीके लगाए जाते हैं. उस कुदाली से एक नारियल फोड़ा जाता है. नारियल फूटने पर सभी ठग, चाहे हिंदू हों या मुसलमान 'जै देवी माई की' बोलते हैं."
ठगों के बीच ऐसी कहानियां प्रचलित थीं कि उन पर कुदाल देवी का आशीर्वाद रहता है. इसके अलावा एक और ख़ास बात ये थी कि ठग मानते थे कि अगर वे नियमों का पालन करते हुए अपना काम करेंगे तो देवी मां की कृपा उन पर बनी रहेगी.
पहला नियम यह था कि क़त्ल में एक बूंद भी खून नहीं बहना चाहिए, दूसरे किसी औरत या बच्चे को किसी हाल में नहीं मारा जाना चाहिए, तीसरे जब तक माल मिलने की उम्मीद न हो, हत्या बिल्कुल नहीं होनी चाहिए.
टेलर ने अपनी किताब में लिखा है कि आमिर अली ख़ान को अपने किए पर ज़रा भी पछतावा नहीं था. दूसरे सभी ठगों के बारे में भी मेजर जनरल स्लीमन ने लिखा है कि "वे मानते ही नहीं थे कि वे कुछ ग़लत कर रहे हैं. उनकी नज़र में यह अन्य पेशों की तरह की एक पेशा था और उनके मन में ज़रा भी पछतावा या दुख नहीं था कि किस तरह मासूम लोगों को मारकर वे ग़ायब कर देते हैं."
कैसे होती थी रास्तों पर ठगी
जिताई पर निकलने वाले ठगों का गिरोह 20 से 50 तक का होता था. वे आम तौर पर तीन दस्तों में चलते थे, एक पीछे, एक बीच में और एक आगे. इन तीनों दस्तों के बीच तालमेल के लिए हर टोली में एक-दो लोग होते थे जो एक कड़ी का काम करते थे. वे अपनी चाल तेज़ या धीमी करके अलग होते या साथ आ सकते थे.
ज़्यादातर ठग, कई भाषाएं, गाना-बजाना, भजन-कीर्तन-नात-क़व्वाली और हिंदू-मुसलमान दोनों धर्मों के तौर-तरीके अच्छी तरह जानते थे. वे ज़रूरत के हिसाब से तीर्थयात्री, बाराती, मज़ार के ज़ायरीन या नकली शवयात्रा निकालने वाले बन जाते थे.
एक रास्ते में वे कई बार अपना रूप बदल लेते थे. ज़ाहिर है, वे भेष बदलने में भी ख़ासे माहिर थे. वे बहुत धीरज से काम लेते थे, अपने शिकार को ज़रा भी भनक नहीं लगने देते थे. कई बार तो लोग ठगों के डर से ही असली ठगों को शरीफ़ समझकर उनकी गिरफ़्त में आ जाते थे.
ठगों के सरदार आम तौर पर पढ़े-लिखे इज़्ज़तदार आदमी की तरह दिखने-बोलने वाले लोग होते थे और बाक़ी उसके तरह-तरह के कारिंदे. फ़िलिप मीडो टेलर की किताब 'कनफ़ेशंस ऑफ़ ए ठग' में आमिर अली ने विस्तार से बताया है कि कैसे वह बड़े सेठों और मालदार लोगों से ज़रूरत के हिसाब से कभी किसी नवाब के सिपाहसालार की तरह मिलता था, कभी मौलवी की तरह तो कभी तीर्थयात्रियों का नेतृत्व कर रहे पंडित की तरह.
आमिर अली ने बताया कि ठगों के काम बंटे हुए थे. 'सोठा' गिरोह के सदस्य सबसे समझदार, लोगों को बातों में फंसाने वाले लोग थे जो शिकार की ताक में सरायों के आसपास मंडराते थे. वे आने-जाने वालों की टोह लेते थे, फिर उनके माल-असबाब और हैसियत का अंदाज़ा लगाकर उसे अपने चंगुल में फंसाते थे. आमिर अली के गिरोह का सोठा गोपाल था जो 'बहुत होशियारी से अपना काम करता था.'
शिकार की पहचान करने के बाद कुछ लोग उसके पीछे, कुछ आगे और कुछ सबसे आगे चलते. रास्ते भर धीरे-धीरे करके ठगों की तादाद बढ़ती जाती लेकिन वे ऐसा दिखाते जैसे एक-दूसरे को बिल्कुल भी नहीं जानते. अपने ही लोगों को जत्थे में शामिल होने से रोकने का नाटक करते थे ताकि शक न हो. यह बहुत धीरज का काम था, हड़बड़ी की कोई गुंजाइश नहीं थी.
आमिर अली ने टेलर को बताया था कि कई बार तो हफ़्ते-दस दिन तक सही मौक़े का इंतज़ार किया जाता था. अगर किसी गड़बड़ी की आशंका हो तो वारदात टाल दी जाती
कमाल का सामंजस्य
सबसे आगे चलने वाले दस्ते में 'बेल' यानी कब्र तैयार करने वाले लोग होते थे. उन्हें बीच वाले दस्ते में से कड़ी का काम करने वाला बता देता था कि कितने लोगों के लिए कब्र बनानी है. पीछे वाला दस्ता नज़र रखता था कि कोई ख़तरा उनकी तरफ़ तो नहीं आ रहा. आख़िर में तीनों बहुत पास-पास आ जाते लेकिन इसकी ख़बर शिकार को नहीं होती थी.
कई दिन गुज़र जाने के बाद जब शिकार चौकन्ना नहीं होता था और जगह माकूल होती थी तब गिरोह को कार्रवाई के लिए सतर्क करने के लिए, बातचीत में पहले से तय एक नाम लिया जाता था. आमिर अली ने अपने बयान में बताया कि इसके लिए 'सरमस्त ख़ां', 'लद्दन खां', 'सरबुलंद खां', 'हरिराम' या 'जयगोपाल' जैसे नामों का इस्तेमाल होता था.
यह पहला इशारा था कि अब कार्रवाई होने वाली है. इसके बाद ठगों में सबसे 'इज्ज़तदार' लोगों की बारी आती थी जिन्हें 'भतौट' या 'भतौटी' कहा जाता था. इनका काम बिना खून बहाए रुमाल में सिक्का बांधकर बनाई गई गांठ से शिकार का गला घोंटना होता था. हर एक शिकार के पीछे एक भतौट होता था, पूरा काम एक-साथ दो-तीन मिनट में होता था. इसके लिए मुस्तैद ठग अपने सरगना की 'झिरनी' का इंतज़ार करते थे.
झिरनी क्या थी
झिरनी अंतिम इशारा होता था कि अपने आगे खड़े या बैठे शिकार के गले में फंदा डालकर खींचा जाए. आमिर अली ने एक झटके में 12-15 तंदुरुस्त मर्दों का काम तमाम करने का वर्णन बेहद सहजता से किया है.
उसने टेलर को बताया, "इशारा या झिरनी आम तौर पर सुरती खा लो, हुक्का पिलाओ या गाना सुनाओ जैसा छोटा वाक्य होता था. फिर पलक झपकते ही भतौट शिकार के गले में फंदा डाल देते थे और दो-तीन मिनट में आदमी तड़पकर ठंडा हो जाता था."
इसके बाद लाशों से कीमती सामान हटाकर उन्हें पहले से खुदी हुई कब्रों में 'एक के सिर की तरफ़ दूसरे का पैर' वाली तरकीब से कब्रों में डाल दिया जाता ताकि कम-से-कम जगह में ज्यादा लाशें आ सकें. इसके बाद जगह को समतल करके उसके ऊपर कांटेदार झाड़ियां जो पहले से तैयार रखी होती थीं, लगा दी जाती थीं ताकि जंगली जानवर कब्र को खोदने की कोशिश न करें. इस तरह पूरा का पूरा चलता-फिरता काफ़िला हमेशा के लिए ग़ायब हो जाता था और ठग भी.
ठग एक अलग तरह का जीव था
आमिर अली ने अपने बयान में बताया है कि आज के उत्तर प्रदेश के जालौन में वह अपनी पत्नी और बेटी के साथ रहता था. ज़्यादातर लोग उसे मुसलमान ज़मींदार या सौदागर समझते थे. साल के सात-आठ महीने वह घर पर एक इज़्ज़तदार मुसलमान की तरह रहता और सही समय पर पूजा-पाठ करके चार महीने के लिए 'जिताई' पर निकल जाता था.
बहुत कम लोग जानते थे कि कौन ठग है, लेकिन एक पूरा नेटवर्क था, यह संगठित अपराध था. आमिर अली के मुताबिक़ कई छोटे-बड़े ज़मींदार और नवाब ठगों से नज़राना वसूल करते थे और मुसीबत के वक्त उन्हें पनाह भी देते थे लेकिन अंग्रेज़ों को इसकी भनक नहीं लगने देते थे.
इसी तरह, कई ज़मींदारों ने ठगों को अपनी बिना खेती वाली ज़मीन इस्तेमाल करने की छूट दे रखी थी जिनमें वे सामूहिक कब्रें खोदते थे. बदले में उन्हें ठगों से हिस्सा मिलता था.
इसी तरह हर जगह ठगों के मुखबिर और उनके मददगार लोग थे जिन्हें वे पैसे देते थे या उनसे दोस्तियां गांठते थे. मदद करने वाले इन लोगों को तो कई बार पता भी नहीं होता था कि वे किसका साथ दे रहे हैं.
कौन ठग था और कौन नहीं, अंग्रेज़ इस पहेली से लगातार जूझ रहे थे. फ़िलिप मीडो टेलर ने अपनी किताब की भूमिका में 1825-26 के एक दिलचस्प क़िस्से का ज़िक्र किया है. वे लिखते हैं, "मेरी तैनाती हिंगोली में थी, वहां हरि सिंह नाम का एक व्यापारी था. हम उससे लेन-देन करते थे. एक दिन उसने बॉम्बे से कुछ कपड़ा लाने का परमिट मांगा, जो उसे दे दिया गया. वह कपड़ा ले आया और उसने मिलिट्री कैंटोनमेंट में कपड़ा बेचा. दरअसल, वह कपड़ा किसी और व्यापारी का था. हरि सिंह ने उसे और उसके कारिंदों को मारकर कपड़ा लूट लिया था. हरि सिंह दरअसल ठग था."
अंग्रेज़ों को हरि सिंह के ठग होने का पता कई साल बाद चला जब उसने पकड़े जाने के बाद अंग्रेज़ों का मज़ाक उड़ाया और बताया कि कैसे कपड़े का परमिट लेकर उसने 'गोरे साहब को उल्लू बनाया था'.
1835 के बाद के सालों में जब ठग पकड़े जाने लगे और उनकी पोल खुलने लगी तो पता चला कि ठगी कितने बड़े पैमाने पर जारी थी. फ़िलिप मीडो टेलर ने लिखा है कि 'मैं मंदसौर में सुपरिटेंडेट था. जब हमने एक वादा माफ़ सरकारी गवाह बने ठग की निशानदेही पर ज़मीन खोदनी शुरू की तो इतनी सामूहिक कब्रें मिलीं कि हमने परेशान होकर खुदाई करना ही बंद कर दिया.'
ठगों पर भारी अफ़्रीकी गुलाम
गहन ऐतिहासिक शोध के बाद लिखे गए शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के चर्चित उपन्यास 'कई चांद थे सरे आसमां' में 1843-44 में रामपुर के नवाब के ख़ास दरबारी मिर्ज़ा तुराब अली के ठगों के हाथों मारे जाने का विस्तृत ब्योरा है. इसमें बताया गया है कि बिहार के सोनपुर के मेले से हाथी-घोड़े ख़रीदने गए नवाब के सिपहसालार और उनके छह साथियों को ठगों ने मार डाला.
मिर्ज़ा तुराब अली और उनके साथियों की हत्या के बारे में जो ब्योरा मिला, उसके मुताबिक ठगों ने एक मरे हुए मुसलमान राहगीर की जनाज़े की नमाज़ पढ़वाने के बहाने हथियारबंद मिर्ज़ा और उनके साथियों को घोड़ों से नीचे उतारा था. जब वे नमाज़ पढ़ रहे थे, तभी 'सुरती खिलाओ' की आवाज़ हुई और सात लोग रुमाल से गला घोंटकर मार डाले गए.
जब तुराब अली रामपुर लौटकर नहीं आए तो नवाब को शक हुआ कि कहीं ठगों के शिकार तो नहीं हो गए. उन्होंने अफ़्रीका से ग़ुलाम बनाकर गुजरात के तट पर लाए गए अफ्रीकियों की कहानियां सुन रखी थीं, जिन्हें सीदी कहा जाता है. उन्होंने इस काम के लिए सीदी इकराम और सीदी मुनइम की मदद ली.
सीदियों के बारे में फ़ारूक़ी लिखते हैं, "नस्ल के लिहाज से सीदी और काम के लिहाज से उन्हें खोजिया कहा जाता था. उनके हुनर की बात दूर-दूर तक फैल चुकी थी. उन्हें गुजरात से अवध तक बुलाया जाने लगा था. पुराने क़दमों के निशान, लापता लोगों का पता लगाना और फ़रार लोगों के सुराग़ ढूंढने में वे माहिर थे. आपस में वे स्वाहिली में जबकि दूसरे लोगों से हिंदी में बात करते थे."
रामपुर के नवाब ने अपने वफ़ादार मिर्ज़ा तुराब अली और उनके साथियों का पता लगाने के लिए सीदियों को भेजा. सीदी पूरे रास्ते झंडे लगाते, गिल्लियां गाड़ते, हर चीज़ की बारीक़ पड़ताल करते चलते रहे. फ़ारूक़ी लिखते हैं, "वे एक बड़े चौकोर मैदान में पहुंचे जहां उन्होंने लकड़ी से लकीरें खींचकर बड़े-बड़े चौकोर खाने बनाए. इसके बाद उन्होंने एक-एक करके उन खानों को सूंघना और उनकी मिट्टी को कुरेदना शुरू किया. वे किसी खोजी कुत्ते से भी ज़्यादा एकाग्रता से अपना काम कर रहे थे."
उन्होंने एक जगह पहुंचकर आवाज़ लगाई, "जमादार जी, वो मारा, यहां खुदाई करवाओ." जब वहां खोदा गया तो मिर्ज़ा तुराब अली सहित नवाब के सभी कारिंदों की लाशें मिल गईं.
सीदी आज भी गुजरात के कुछ इलाकों में बसे हुए हैं लेकिन ठगों का सफ़ाया हो चुका है.
ठग आमिर अली के बारे में बताने लायक एक फ़िल्मी सी लगने वाली बात ये है कि उसे उस ठग ने बहुत प्यार से अपने बेटे की तरह पाला था, जिसने उसके बाप को एक वारदात के दौरान मार डाला था.
आमिर को गोद लेने वाले ठग बाप से ठगी की दीक्षा मिली थी, इसी कारण ठगी को वो एक नेक काम समझता था.
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